अधूरे सपनों की दास्तान-2

यह कहानी एक सीरीज़ का हिस्सा है:

अधूरे सपनों की दास्तान-1

अधूरे सपनों की दास्तान-3

मेरी गर्म कहानी के पिछले भाग में आपने पढ़ा कि कैसे मेरे उसके निप्पल का कलर पूछने पर मेरे दोस्त की बीवी नाराज हो गयी थी, लेकिन रात के तीन बजे उसने व्हाट्सअप पर ‘ब्राउन’ के रूप में कलर लिख भेजा था।
जिसे पढ़ कर मेरा स्ट्रेस जाता रहा था और नीचे मैंने बस इतना लिख दिया था कि ‘मुझे भी यही लगा था।’
बहरहाल, यह पहली बाधा थी जो उसने सफलतापूर्वक पार कर ली थी और मैं आज के लिये इतने पर ही खुश था।

दिन गुजर गया.. रात में उसने मैसेज किया कि फिलहाल व्हाट्सअप पे ही बात करो, उसे जरूरत महसूस होगी तो वह कॉल कर लेगी।

फिर उसने बताया कि उसे मेरे यूँ एकदम से पूछने पे खराब तो लगा था लेकिन फिर तीन बजे तक वह अन्तर्वासना पर मेरी कहानियाँ पढ़ती रही थी और अंत में उसे लगा था कि सवाल उतना भी बुरा नहीं था और वह जवाब दे सकती थी।

मैं कहानियाँ पढ़ने के बाद की उसकी मानसिक अवस्था बेहतर समझ सकता था।

उसने गौसिया की कहानी एक्चुअल रूप में जाननी चाही ताकि कहानी के हिसाब से उनके बीच छुपाव के लिये आजमाये गये एहतियाती कदमों को परख सके.. तो मैंने उसे नाम, जगह और संबंधित एक्टिविटीज बदल कर सुना दी, जिससे गौसिया की आइडेंटिटी कहीं से भी जाहिर न हो।

वह मुतमइन हो गयी.. जबकि हकीकत यह थी कि सच वह भी नहीं था। मेरी नजर में सच की जरूरत भी उसे नहीं थी और न ही किसी पढ़ने वाले को होनी चाहिये क्योंकि कहानी का उद्देश्य मात्र मनोरंजन होता है और हर पढ़ने वाले के लिये वही मुख्य होना चाहिये।

वह निश्चिंत हो गयी तो उसे बातचीत की पटरी पर लाना आसान हो गया.. जो कहानियाँ छप चुकी थीं, उनके सिवा भी मैं रात दो बजे तक उसे अपनी निजी जिंदगी के बारे बताता रहा।

खासकर उन बातों को जो सेक्स से जुड़ी थीं.. जिनमें अंतरंगता भी थी और अश्लीलता भी थी।

मैंने यह खास इसलिये किया था कि वह पढ़ते-पढ़ते बहने लगे। उसकी दिमागी रौ को डिस्टर्ब न करने के उद्देश्य से मैंने उसका कुछ भी नहीं पूछा और बस सहज भाव से अपनी ही बताता रहा।

दो बजे जब आंखें और उंगलियां थक गयीं तब उससे विदा ली.. मुझे अंदाजा था कि उसके लिये सोना कितना मुश्किल रहा होगा। जबकि मेरी सेहत पर इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ना था क्योंकि मैं उसकी तरह तरसा नदीदा नहीं था, बल्कि खाया पिया और अघाया हुआ था।

मैं परिपक्व था.. मैं सब्रदार था, मेरा खुद पर नियंत्रण था, मुझे जल्दबाजी की आदत नहीं थी। मुझे धीमी आंच पे पके व्यंजन का जायका पता था।

अगली रात मैंने उससे अर्ज़ की.. कि अब मैं उसकी बातें जानना चाहूँगा, उसके पहले सहवास के बारे में.. उसके खास यादगार लम्हों के बारे में। अगर वह लिख सकती है इतना, तो लिखे या बताना चाहे तो मैं कॉल कर सकता हूँ।

लिखा हुआ रिकार्ड बन जाता है, जो मुझे पता था कि वह नहीं चाहेगी.. हालाँकि बातचीत भी रिकार्ड की जा सकती है, लेकिन वह अक्सर लोग तब करते हैं जब इरादे ही नेक न हों।

जबकि उसने पूछा कि इससे क्या होगा? क्या उसकी समस्या का समाधान हो पायेगा.. या उसकी सुलगती अधूरी ख्वाहिशों को कोई किनारा मिल पायेगा?
तब मैंने उसे समझाया कि सेक्स सिर्फ शारीरिक लज्जत के लिये ही नहीं होता, दिमागी सुकून के लिये भी होता है और दुनिया में बहुत से ऐसे लोग मिल जायेंगे जो किसी विपरीत लिंगी से सिर्फ सेक्स चैट करके, उसे छूकर, अपनी गोद में बिठा भर के या कुछ पल अंतरंग हो कर ही सेक्सुअल सैटिस्फैक्शन यानि यौन सन्तुष्टि पा लेते हैं।

यह भी कुछ ऐसा है.. अगर वह बतायेगी तो शायद गुजरे वक्त से निकल कर वह एक-एक लम्हा वापस जिंदा हो उठे जिसने उसे कभी माझी में वह भरपूर लज्जत बख्शी थी, जिसके लिये उम्र के इस मकाम पर आज उसे तरसना पड़ रहा है।
और यह उसके लिये कम संतुष्टि की बात नहीं होगी.. यह अपने अंतरंग पलों को किसी और के बहाने वापस जी लेने जैसा अनुभव देगा, जिसकी उसे इस वक्त सख्त जरूरत है।

वह सोच में पड़ गयी.. फिर इतना ही पूछ पाई कि क्या यह गलत नहीं होगा?
मैंने समझाया.. क्यों गलत होगा भला? सेक्स को क्यों हम एक टैबू मान कर चलते हैं। क्या यह हमारे जीवन से जुड़ा सबसे अहम घटक नहीं?

पूर्व के समाज ने इसे टैबू बनाया हुआ है और बावजूद इसके धड़ाधड़ आबादी बढ़ा रहा है और सौ में से नब्बे लोग इन समाजों में यौनकुंठित और दुखी ही पाये जाते हैं। जबकि पश्चिमी सभ्यता में यह रोज के खाने पीने जैसा आम व्यवहार है और वे सेक्स को खुल कर जीते हैं और पूर्व के मुकाबले वे ज्यादा खुश और खुशहाल होते हैं।

यह हमारी बौद्धिक समस्या है कि हमने अपनी जरूरतों से इतर सही-गलत नैतिक-अनैतिक के मर्दाने पैमाने गढ़ रखे हैं.. और यह जरूरतों के आगे समर्पण ही है कि पूरा समाज दोगलेपन के मापदंडों पर खरा उतरता है।

मेरी बातों का उसपे सकारात्मक असर पड़ा और वह इस बारे में बात करने के लिये तैयार हो गयी।
मैंने उसे समझाया कि ईयरफोन के सहारे बोलते हुए वह आंखें बंद करके वापस उसी वक्त में पंहुच जाये और एक-एक बात को यूँ याद करे, जैसे वह सब फिर से उसके साथ गुजर रहा हो।
उसने ऐसा ही किया।

और अब आगे जो भी आप पढ़ेंगे, वह लिख मैं रहा हूँ लेकिन शब्द रजिया के हैं।

मैं यानि रजिया मलीहाबाद के एक बड़े से पुश्तैनी घर में रहने वाली तीन भाइयों की संयुक्त परिवार का हिस्सा थी.. मेरे वालिद सबसे छोटे थे भाइयों में और हम तीन बहन और एक भाई थे, मेरा नंबर सबसे आखिर में था।
जबकि सबसे बड़े अब्बू के परिवार में तीन बेटे और उनसे छोटे तुफैल चाचा के परिवार में एक बेटा और एक बेटी ही थे। यानि तीन भाइयों के परिवार में पांच लड़के और तीन लड़कियाँ थीं।

बड़े अब्बू के बेटे चूँकि मुझसे काफी बड़े थे तो उनके दो बेटों की शादी हो चुकी थी और बड़े भाइजान का एक बच्चा भी था, जबकि तुफैल चाचा के सना और समर हमारे साथ के ही थे।

खेलकूद के साथ गुजरते बचपन के पार अपनी योनि की ओर मेरा ध्यान पहली बार तब गया था जब मेरी माहवारी शुरू हुई थी। अम्मी को बताया तो उन्होंने शाजिया अप्पी, जो मुझसे चार साल बड़ी थीं.. के पास भेज दिया और उन्होंने मुझे न सिर्फ साफ किया, बल्कि माहवारी के बारे में बता कर पैड भी लगाने को दिया।

फिर उन खास दिनों में ही योनि की तरफ ध्यान नहीं जाता था बल्कि कभी-कभी वहां हाथ लगता या अपने अर्धविकसित स्तनों पर हाथ लगता तो कई मादक सी लहरें पूरे जिस्म में दौड़ जाती थीं।
तब इसका कोई मतलब तो समझ में नहीं आता था लेकिन बस अच्छा लगता था और अच्छा लगता था तो कभी दोपहर में जब बाकी लोग सोने की मुद्रा में हों तो खुद को सहला या रगड़ लेती थी।

यूँ तो रात को मेरा सोना मुझसे बड़ी बहन अहाना के साथ ही होता था, लेकिन कभी अकेले सोने का मौका मिल जाता तो काफी रात तक खुद को सहलाती रगड़ती थी। या फिर अक्सर तो नहीं लेकिन कभी कभार नहाने में वक्त और मौका मिल जाता था तो खुद से छेड़छाड़ कर लेती थी।

बाथरूम में नल नहीं लगा था, बाहर लगा था जिससे पाईप के सहारे अंदर तसला पानी से भर लेते थे और उस पानी से नहाते थे लेकिन मौका मिलने पे मैं उस पाईप को दबा कर प्रेशर से पानी या तो अपने निप्पल्स पर मारती थी या फिर अपनी योनि पर..
इससे एक नशा सा चढ़ता था और अजीब से मजे की प्राप्ति होती थी।

इस बारे में हालाँकि मैंने कभी किसी और से बात नहीं की.. क्योंकि मुझे लगता था कि यह गलत है और किसी से कहने में मेरी ही बेइज़्ज़ती है। उस वक़्त मुझे कोई ऐसा कंटेंट भी उपलब्ध नहीं था और न ही तब कोई स्मार्टफोन और नेट हमें उपलब्ध था, जिससे मुझे इस सब के बारे में पता चल सकता।
और न ही कोई बताने वाला था।

फिर यूँ ही दो साल और गुज़र गये… मैं हाई स्कूल में पहुँच गयी लेकिन तब तक मुझे कभी किसी परिपक्व लिंग के दर्शन नहीं हुए थे।

एक दिन स्कूल से वापसी में रास्ते में एक पागल दिखा, जिसके कपड़े फटे हुए थे और वो सड़क किनारे बैठा अपनी फटी पैंट से अपना लिंग बाहर निकाले सहला रहा था। वह मेरी जिंदगी में देखा पहला मैच्योर लिंग था.. हालंकि वो उस वक़्त पूरी तरह तनाव में नहीं था लेकिन फिर भी खड़ा था।

और फिर कई दिन तक वो अर्धउत्तेजित लिंग मेरे दिमाग में नाचता रहा और मेरे होंठों को खुश्क करता रहा.. वह कला सा गन्दा, घिनावना लिंग था लेकिन जाने कौन सा आकर्षण था उसमे कि मेरे दिमाग से निकलता ही नहीं था।

वह पागल तो कई बार दिखा लेकिन फिर कभी उसका लिंग न दिख पाया.. लेकिन इसका एक बुरा असर मेरे दिमाग पर यह पड़ा कि मेरी बेचैन निगाहें हर मर्द में उनकी जाँघों के जोड़ पर लिंग का उभार तलाशने लगीं और दिमाग इस कल्पना में रत हो जाता कि वह कैसा होगा।

यहाँ तक कि मैं अपने घर के सभी चचेरे भाइयों के लिये भी उसी तरह सोचने लगी और नज़रें बचाते हुए उनकी जांघों के जोड़ पर मौजूद उभार को देखने और महसूस करने में लगी रहती।
मैं जानती थी कि यह गलत है और खुद को बाज़ रखने की कोशिश भी भरसक करती लेकिन कामयाब तभी तक रह पाती, जब तक कोई मर्द सामने न हो।
खासकर तब मेरा ध्यान उनकी तरफ और जाता था जब वे लोअर पहन कर घर में फिर रहे होते।

और ऐसा भी नहीं था कि यह सब अकारण था, बल्कि इसके बीज तो मेरे अवचेतन में बचपन से रोपे जा चुके थे.. जो तुफैल चाचा की बीवी थीं, यानि सना और समर की अम्मी, उनका कैरेक्टर भी अजीब था, वो अक्सर मायके चली जाती थीं और घर में अक्सर होते झगड़े से मुझे पता चलता था कि वे अपने किसी यार से मिलने जाती थीं।

कई बार उन्हें इधर-उधर पकड़ा भी गया था और काफी उधम चौकड़ी भी मचती थी लेकिन उन पर कोई असर पड़ता मैंने नहीं देखा था.. हाँ अब ढलती उम्र में शायद उनके शौक कमज़ोर पड़ चुके थे।

उनके सिवा बड़े अब्बू की फैमिली में खुद बड़े अब्बू ही एक नंबर के अय्याश इंसान थे, जिनके किस्से जब तब सामने आते थे। बहु पोते वाले हो कर भी कोई उनकी रखैल थी, उसके पास रातें गुजरने से बाज़ नहीं आते थे।

और ठीक इसी तर्ज़ पर मेरी अम्मी भी थीं.. मेरे अब्बू सऊदी में रहते थे तो उनके एक खास दोस्त थे ज़मीर अंकल, अब्बू के कहने पे घर के हाल चाल और वक़्त ज़रुरत मदद के लिये आते रहते थे।

लेकिन यह बाद में मुझे अहसास हुआ कि वे अकेले में मौका पाते ही मेरी अम्मी के शौहर की भूमिका भी निभा लेते थे, इस बात पर भी घर में कई बार बवाल हुआ था लेकिन चूँकि सबके खुद के कारनामे काले थे तो ऐसे में नैतिक ठेकेदारी कौन लेता।

तब मुझे इस बात का कोई अंदाज़ा नहीं था लेकिन बाद में अहसास हो गया था कि मैं दरअसल उनकी ही औलाद थी, वो हम चार भाई बहनों में सिर्फ मेरा खास ख़याल रखते थे और उन्होंने ही मेरी शादी भी अपने भतीजे यानि आरिफ से करायी थी।

इसके सिवा एक कांड और हुआ था घर में.. जो मैंने देखा तो नहीं था लेकिन जब घर में हो-हल्ला मचा तो सुना सब मैंने ज़रूर था।

बड़े अब्बू के तीन बेटे थे.. शाहिद, वाजिद, और राशिद, इनमें से शाहिद सबसे बड़े थे और एक दिन सबसे ऊपर के एक कमरे में वह और शाजिया अप्पी एकदम नंगे पकड़े गये थे.. ये बात और थी कि तब मुझे यह भी पता नहीं था कि शाजिया अप्पी वहां शाहिद भाई के साथ नंगी होकर क्या कर रही थीं।

तब मैंने उनसे पूछने की कोशिश भी की लेकिन उन्होंने मुझे डांट कर चुप करा दिया था। उस वक़्त बड़ी चिल्ल पों हुई थी और अप्पी की पिटाई भी हुई थी, जबकि शाहिद भाई तो घर से ही भाग गये थे और एक हफ्ते बाद लौटे थे।

खैर.. हम चारों में सुहैल सबसे छोटा था और एक दिन इत्तेफाक से मैंने उसे भी ऐसी ही हरकत करते देखा था जो मुझे काफी दिन तक कचोटती रही थी।

हमारे यहाँ बाथरूम की सिटकनी में थोड़ी प्रॉब्लम थी, उसे बंद करने के बाद साइड में घुमाया न जाये तो वो धीरे-धीरे नीचे आ जाती थी और यही शायद उस वक़्त भी हुआ था जब मैंने दरवाज़े पर धक्का लगाया तो खुल गया।

मुझे लगा अन्दर कोई नहीं था लेकिन सुहैल अन्दर था और उसी पागल की तरह अपने लिंग को अपने हाथ में पकड़े जोर-जोर से रगड़ रहा था।
एकदम से दरवाज़ा खुलने और मुझे सामने देख कर वो बुरी तरह चौंका, उसकी आँखें फैलीं लेकिन शायद वह जिस अवस्था में था उसमें खुद को रोक पाना उसके लिये नामुमकिन था और मेरे देखते-देखते उसके लिंग से जो सफ़ेद से द्रव्य की पिचकारी छूटी तो वो मेरे कुरते तक भी आई और मैं हैरानी से उसे देखने लगी.
जबकि वह अपने लिंग को अपने दोनों हाथों में दबाने छुपाने की कोशिश करता एकदम नीचे उकड़ू बैठ गया था।

“यह क्या है?” मैंने अपने कुरते पर आये सफ़ेद लसलसे पदार्थ को उंगली से छूते हुए कहा- क्या हो गया तुझे? और यह क्या है सफ़ेद-सफ़ेद?
“तुम जाओ.. तुम बाहर जाओ..” वह ऐसे याचनात्मक स्वर में बोला कि मुझे लगा वो बस अभी रो ही देगा।
“तुम ठीक तो हो… तुम्हें कुछ हुआ तो नहीं?” मैंने चिंताजनक स्वर में कहा।
“नहीं।” उसने रुआंसे होकर कहा।

मैंने न चाहते हुए भी खुद को बाथरूम से बाहर कर लिया और उसने उठ कर दरवाज़ा बंद कर लिया. शायद अन्दर खुद की सफाई पुछाई कर रहा था और फिर मेरे देखते-देखते निकल कर बिना कोई जवाब दिये भाग खड़ा हुआ।

मैंने वापस बाथरूम चेक किया तो कहीं कोई चिह्न नहीं दिखा था उस सफ़ेद पदार्थ का और मेरे कुरते पर भी जो था वो हल्का हो गया था.. तो मैंने उसे धोकर साफ़ कर लिया।

इस बात का ज़िक्र मैंने अहाना से किया तो उसने मुस्करा कर टाल दिया कि उसे इस बारे में नहीं पता था, लेकिन उसकी मुस्कराहट कहती थी कि उसे सबकुछ पता था।
बाद में मैंने सुहैल से फिर पूछा था लेकिन उसने फिर कोई जवाब नहीं दिया था।
बहरहाल बात आई गयी हो गयी।

फिर एक दिन बारिश के मौसम में…
कहानी जारी रहेगी.

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