सेक्स की देवी वसुंधरा-5

यह कहानी एक सीरीज़ का हिस्सा है:

सेक्स की देवी वसुंधरा-4

सेक्स की देवी वसुंधरा-6

ख़ैर! मैंने वाशरूम जाकर दांतों को ब्रश किया और लिस्टरीन से कुल्ले किये.

बाहर बादल रह-रह कर घनगर्जन रहे थे. मैंने खिड़की का पर्दा उठा कर बाहर देखा तो पाया कि अभी तो बारिश बंद थी लेकिन रह-रह कर यहां-वहां कौंधती बिजलियाँ इस बात का ऐलान कर रही थी कि अब होने वाली बरसात बहुत धुआंधार होगी … ठीक वैसे ही जैसे वसुंधरा के वापिस चैतन्य होने भर की देर है और फिर उस के बाद … आज की रात जो हमारे बीच अभिसार होगा, वो अविश्वसनीय रूप से अद्वीतीय होगा, जिसे मरते दम तक न मैं भूल पाऊंगा … न वसुंधरा.

मैंने पास जाकर सोई हुई वसुंधरा को अच्छी तरह से रजाई ओढ़ा दी और खुद सामने कुर्सी पर बैठ गया.

सामने वाल-क्लॉक में दस … बस बजा ही चाहते थे कि सामने बिस्तर पर कुछ हलचल हुई और वसुंधरा थोड़ा कुनमुनाई. मैं उठ कर लेटी हुई वसुंधरा के सिरहाने के पास थोड़ा बायीं तरफ़ बैठ गया और पुरसुकून सी नींद में रत वसुंधरा की कदरतन नम पेशानी पर बहुत प्यार से हाथ फिराने लगा. धीरे-धीरे वसुंधरा चैतन्य होती गयी.
“मैं कितनी देर सोई रही … ?” वसुंधरा ने सरगोशी सी की.
“कुछ ख़ास नहीं … कोई बीस-पच्चीस मिनट!”

“ओह … !” वसुंधरा ने अपने दोनों हाथ बढ़ा कर मेरा हाथ अपने हाथों में थाम लिया और अपने गुलनारी होंठों से मेरे हाथ की पुश्त चूम ली. मैंने वसुन्धरा का चेहरा अपने दोनों हाथों में ले लिया और झुक कर वसुन्धरा की पेशानी पर एक चुम्बन अंकित कर दिया.

वसुंधरा ने अपनी स्वप्नलिप्त आँखें उठा कर मेरी आँखों में देखा और मंद-मंद सा मुस्कुराते हुए खुद ही शरमाने सी लगी. अपने महबूब के साथ बिताये ऐसे ही चंद पल किसी की भी जिंदगी को जीने लायक बनाते हैं.
“मैं अभी आयी.” मेरे बाएं गाल पर प्यार से हाथ रख कर वसुंधरा ने उठते हुए कहा और जल्दी से बिस्तर पर से उतर कर अपना नाईट गाऊन संभालती हुई वॉशरूम में जा घुसी.

मैं समझ सकता था. अत्यधिक योनि-स्राव और रज़प्रवाह के कारण वसुंधरा को अपना योनि-प्रदेश गीला-गीला सा महसूस हो रहा होगा और वो उसी को साफ करने गयी थी.

थोड़ी देर बाद वसुंधरा वॉशरूम से बाहर निकली.

“अरे! अभी तो दस ही बजे हैं … ! ” हैंड-टॉवल से हाथ पोंछते हुए वसुंधरा ने अविश्वास से वाल-क्लॉक पर नज़र मार कर बिस्तर के पास आकर अपना नाईट-गाऊन कुर्सी की पुश्त पर टाँगते हुए कहा.
मैं केवल मुस्कुरा भर दिया.

बाहर हवा बिल्कुल बंद हो गयी थी और रह-रह कर बिजली कौंध रहीं थी. किसी भी क्षण बारिश शुरू होने को थी. कमरे के अंदर भी और बाहर भी तूफ़ान बस … आने को ही था.

“ज़रा सरकिये!” वसुंधरा की आवाज़ में शरारत का पुट था. वसुंधरा मेरे सामने से हो कर बिस्तर पर चढ़ कर घुटनों के बल चार पग भर कर मेरे बाएं पहलू में ज़रा सी जग़ह में फंस कर बैठ गयी. उसने मेरी बायीं बाज़ू उठा कर अपने गिर्द लपेट ली और मेरे साथ जुड़ कर बैठ गयी.

पढ़ी-लिखी, दानिशमंद, समझदार और सुलझी अक़्ल की मालिक वसुंधरा मेरे आगे एक निपट एक अल्हड़ सी बच्ची का सा व्यवहार कर रही थी. साइकोलॉजिस्टज़ ठीक ही कहते हैं कि स्त्री अपने प्रेमी में अपने पिता का अक़्स ढूँढती है. लेकिन ‘पिता’ लफ्ज़ से मुराद … स्त्री को खुद को सुरक्षित महसूस करने से लेना चाहिए.

मैं अपलक वसुंधरा को देख रहा था.
“क्या देख रहे हैं?”
“क्या कर रही हो?”
“बैठी हूँ.” वसुंधरा ने आँखे मटकाते हुए चंचल स्वर में कहा.
“इतनी थोड़ी सी जग़ह पर! … दायीं तरफ आकर आराम से क्यों नहीं बैठती?”

“गन्धर्व-विवाह की ही सही … वामांगी हूँ आपकी. आज तो आप के बायीं ओर ही बैठूंगी और आज के बाद तो ऐसा मौका मिलेगा नहीं.” बहुत गहरी बात कह दी थी वसुंधरा ने.
वामांगी माने सुहागशैया पर पुरुष की बायीं तरफ़ विराजने वाली, गर्भ धारण करने की इच्छुक पुरुष की अर्धांगिनी.
“राज! अगर मैं भगवान से कुछ मांगू तो क्या आप चाहेंगे कि मैंने जो चाहा है वो मुझे मिल जाए?”
“यकीनन … हमेशा!” मैंने दिल से कहा.

“तो आज आप भगवान से प्रार्थना कीजियेगा कि मेरी कोख में आप का बीज़ फले-फूले.” वसुंधरा ने मेरे कान में सरगोशी की.
“क्या कह रहीं हैं आप … वसुंधरा! यह कैसे मुमकिन है?” मैं बिदका.
मेरे तो होश ही फ़ाख़्ता हो गए ऐसी बेतुकी सी बात सुन कर.

“क्यों! इस में नामुमकिन होने जैसा क्या है?” वसुंधरा ने जिद की.
“वसु! आप समझो ज़रा … और चार दिन में आप की शादी हो रही है और आप मुझ से … मेरा मतलब … क्यों?” हैरानी के चलते सही अल्फ़ाज़ भी नहीं मिल रहे थे.
“जानती हूँ … चार दिन बाद जो होने वाला है लेकिन एक पत्नी का अपने पति से बच्चा मांगना नामुमकिन क्यों कर हो गया?” आत्मविश्वास से भरपूर वसुंधरा का स्वर गूंजा.
“वसुंधरा प्लीज़! जिंदगी पहले से ही बहुत उलझी हुई है, इस में और ज्यादा उलझनें मत डालो.” मैंने तर्क छोड़ कर भाव का रास्ता अपनाया.

“राज! आज की रात मुझे ऐसे प्यार करो कि आप का अंश मेरी कोख में पैर पसार ले. कल सुबह सूरज चढ़ने के साथ ही हम दोनों की जिंदगियों के रास्ते विपरीत ध्रुवों की ओर मुड़ जायेंगे और जिंदगी में दोबारा मुलाक़ात की संभावना क़रीब-क़रीब न के बराबर होगी. कभी कहीं कोई मुलाकात हो भी गयी तो ऐसे होगी जैसे किसी रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट पर अलग-अलग दिशाओं से आकर, अलग-अलग दिशाओं को जाने वाले दो अजनबी यात्री बेसाख़्ता आमने-सामने आ गए हों. राज! नसीब ने आप के साथ का मौका तो सिर्फ दो रात का ही दिया लेकिन मैं अपनी बाकी की जिंदगी, आप की याद के साथ-साथ, आप के अंश के साथ गुज़ारना चाहती हूँ … प्लीज़!”

वसुंधरा का एक-एक लफ़्ज़ सीधे दिल से निकल रहा था और अब मेरे भाग निकलने के सब रास्ते बंद थे. मुझे तुरंत एक फैसला लेना था और मैंने फैसला ले लिया.
“भाड़ में जाए दुनिया. जो होगा … देखा जायेगा.”

मैंने अपना दायां हाथ बढ़ा कर अपनी तर्जनी ऊँगली वसुंधरा के होंठों पर रख दी और उसे अपने साथ और कस लिया. तत्काल वसुंधरा के चेहरे पर एक मुस्कान आ गयी और उस ने अपनी स्वप्नलिप्त अधखुली आँखों से मुझे निहारा.

मैंने थोड़ा आगे झुक कर इस मुजस्सम हुस्न को गौर से देखा. वसुंधरा के होंठ काम-प्रत्याशा में धीरे-धीरे थिरक रहे थे जिन्हें वसुंधरा बार-बार अपनी जीभ से नम कर रही थी, काली कजरारी आँखों में बेहिसाब ख़ुशी, बेइंतहा प्यार और कुछ-कुछ डर के अहसास छलके जा रहे थे.
नाईटी की दो काली पट्टियों के नीचे गोरे कन्धों और और काली नाईटी के बिल्कुल बीच में नेट में से झांकती दो उन्नत उरोजों के बीच की गहरी लक़ीर, सब कुछ इतना सम्मोहक और आकर्षक था कि किसी ऋषि की भी तपस्या हो जाए.

मेरा बायां हाथ वसुंधरा के बायें वस्त्र-विहीन कंधे पर था. मेरी हथेली के नीचे वसुंधरा के गोरे ज़िस्म से उठ रही गर्माइश धीरे-धीरे मुझे बैचैन करने लगी थी. मैं ज़रा सा बायीं ओर झुका और मैंने वसुंधरा के माथे पर अपने जलते-तपते होंठ रख दिए. वसुंधरा मेरे होंठों की छुवन अपनी पेशानी पर महसूस कर के समूची सिहर उठी.

मैंने अपना दायां हाथ उठा कर वसुंधरा की दायीं जांघ पर रख दिया.
“आह..ह..ह … ह!!! सी … ई … ई … ई … ई … ई … !!!” तत्काल वसुंधरा के मुंह से एक तीखी सिसकारी निकल गयी और वसुंधरा के दोनों बाजुओं का हार मेरे गले में आ पड़ा.
और वसुंधरा बेताबी से मुझे अपनी तरफ़ खींचने लगी.

मैंने पहले वसुंधरा के माथे पर एक चुंबन लिया, फिर बारी-बारी दोनों आँखों पर, फिर दोनों कपोलों पर, नाक की फ़ुनगी पर और फिर मैं ज़रा सा रुक गया. होंठों पर चुंबन की प्रत्याशा में वसुंधरा अपनी आँखें बंद रखते हुए अपने होंठों पर जीभ फ़िरा कर उन्हें नम कर रही थी और मैं उसे सिर्फ निहार रहा था.

अचानक वसुंधरा ने अपनी आखें खोली, मैं तो पहले से ही वसुंधरा की बंद आँखें देख रहा था. वसुंधरा की आँखें खुलते ही मेरी आँखों से मिली, नज़रें चार हुई. मेरी हल्की सी हंसी छूट गयी, वसुंधरा ने खीझ कर मुंह बिचकाया और फ़िर शरमा कर अपनी आँखें दोबारा बंद कर ली.

ऊपर तो मैंने वसुंधरा के लबों जोड़ को अपनी जुबान से ज़रा सा छुआ लेकिन नीचे से अपना दायां हाथ बढ़ा कर बायीं ओर वसुंधरा की कमर को पकड़ लिया. अब मैं लगभग वसुंधरा के ऊपर आ गया था.

वसुंधरा ने तत्काल अपने होंठ खोल दिए. दो गुलाबी होंठों में मोतियों सी सुडौल दंतपंक्ति चमकने लगी. मैंने बहुत कोमलता से वसुंधरा के अधरों का एक चुम्बन लिया और हौले से अपनी जीभ वसुंधरा के मुंह में डाल दी. वसुंधरा ने तत्काल अपने दोनों बाज़ू दोबारा मेरे गले में डाल दिए और अपने दोनों हाथ मेरी पीठ पर जमा कर मुझे अपने साथ कसने की कोशिश करने लगी. इधर मेरी जीभ वसुंधरा की जीभ से खिलवाड़ करने लगी. यूं बीच-बीच में वसुंधरा भी मेरी जीभ को चूस रही थी.

बेख़ुदी के आलम में वसुंधरा धीरे-धीरे नीचे की ओर सरक कर बिस्तर पर बैठने की मुद्रा से अधलेटी मुद्रा में हो गयी थी. वसुंधरा के बिस्तर पर बैठे-बैठे नीचे की ओर सरकने की वजह से वसुंधरा की नाईटी नीचे से ऊपर की ओर सरक गयी थी या यूं कहिये कि वसुंधरा का जिस्म उस की नाईटी से नीचे की ओर से बाहर आ गया था जिस कारण वसुंधरा की गोरी-गोरी टांगें पिंडलियों से ऊपर तक और घुटनों से ज़रा सा नीचे तक अनावृत हो गयीं थी जिससे वसुंधरा क़तई बेख़बर थी.

मैंने वसुंधरा की जांघ पर पड़ा अपना दायां हाथ लम्बवत किया और वसुंधरा की दायीं टांग की नग्न पिंडली पर रख कर उस पर अपनी उंगलियां चलाने लगा. पाँचों उँगलियों के पोर धीरे-धीरे गर्दिश करते हुए वसुंधरा की टांग के टखने तक गए और फिर वापिस ऊपर उठते-उठते ऊपर घुटने तक आ गए. यहां से वसुंधरा की टांग नाईटी के आवरण के अंदर थी. तर्जनी और मध्यमा ऊँगली ने अंगूठे के साथ मिल कर जैसे ही वसुंधरा की नाईटी थोड़ी सी ऊपर उठायी, पूरी पाँचों की पांचों शरारती उंगलियां, हथेली समेत नाईटी के अंदर समा गयीं.

और जैसे ही उँगलियों के पौरुओं ने वसुंधरा की रेशम-रेशम नग्न जांघ को छुआ, वसुंधरा के मुंह से एक काम-किलकारी निकल गयी.
“उई … ई … ई … ! आह … ह … ह … ह … !!!”

मैंने अपने बाएं हाथ से वसुंधरा को पीठ के नीचे से संभालते हुए थोड़ा सा ऊपर उठाया और वसुंधरा के दाएं कान की लौ को अपनी जीभ से छुआ.
” उफ़.. फ़ … फ़ … फ़ … फ़!! आह..आ..आ..आ..आ … ह..!! ” एक तीखी सिसकारी के साथ वसुंधरा ने उत्तेजना-वश मेरे बाएं कंधे पर अपने दांत गड़ा दिए.

मैंने वसुंधरा के दायें कान की लौ छोड़ी और झट से वसुंधरा के बाएं कपोल को मुंह में लिया और उसे चुमलाने, चूसने लगा. साथ ही मैंने अपने जिस्म का आधा वजन अपनी बायीं कोहनी पर किया और अपने बाएं हाथ से … जोकि वसुंधरा के नीचे, वसुंधरा की पीठ पर था, थोड़ा सा वसुंधरा को ऊपर उठाते हुए अपने साथ ज़ोर से कस लिया. वसुंधरा के दोनों बाजू मेरी पीठ पर कसे हुए थे.
वसुंधरा की दोनों छतियों का दबाब मैं साफ़ तौर पर अपनी छाती महसूस कर पा रहा था. और इधर मेरा दायां हाथ वसुंधरा की नाईटी के अंदर-अंदर से, वसुंधरा की संदली देह पर अपनी उँगलियों से सितार के तार छेड़ने जैसी हरकत करते-करते, धीरे-धीरे वसुंधरा की कमर पर वसुंधरा की पैंटी के इलास्टिक पर इकतारा बजाता हुआ वसुंधरा की पसलियों पर से होता हुआ, वसुंधरा की ब्रा के स्ट्रैप को लांघता हुआ, उसकी बायीं कांख के ठीक नीचे तक पहुँच गया था.

मेरी उँगलियों की हर जुम्बिश के साथ-साथ वसुंधरा के के मुंह से निकलती प्रणय-सिसकारियों में वृद्धि होती जा रही थी और हर पल वसुंधरा के जिस्म का तापमान बढ़ता ही जा रहा था.
“ओह … राज … आह … ह … ओह … ओ … ह … हां … हा … सी … इ … इ..इ … ई … ई … !!!”

कहानी जारी रहेगी.
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