फिर एक अहिल्या – 4

यह कहानी एक सीरीज़ का हिस्सा है:

फिर एक अहिल्या – 3

फिर एक अहिल्या – 5

वसुन्धरा के पैरों के तलवे गहरे गुलाबी रंग के, गद्दीदार और वलय वाले थे और पैरों की सारी उंगलियां रोमरहित एवं समानुपात में थी. वात्सायन के अनुसार ऐसे पैरों वाली स्त्रियां बौद्धिक रूप से अत्यंत विकसित, प्राकृतिक तौर पर संकीर्णयोनि अर्थात तंग योनि वाली, पति को सुख देने वाली प्राण-प्रिया और उत्तम संतान को जन्म देने वाली होती हैं.

पर हाल की घड़ी तो यहां अपनी ही जान के लाले पड़े हुए थे. वसुन्धरा लहंगे के बीचों-बीच उठकर खड़ी हो गयी.

सबसे मुश्किल आजमायश का वक़्त आन पहुंचा था. मुझे वसुन्धरा के पैरों तक झुक कर जमीन से लहंगे का नाड़े वाला हिस्सा ऊपर की ओर लाना था. हाथ में लहंगा ले कर खुद सीधे होने की प्रक्रिया में मेरा मुंह और मेरी आँखें, न होने के जैसी छोटी सी पेंटी के पीछे वसुन्धरा की झिलमिलाती योनि से चंद इंच ही दूरी पर होनी थी. तब मैं नारी-शरीर के उस गोपनीय और विशेष अंग की झलक पा रहा होऊंगा जिसको कोई भारतीय नारी चाँद-सूरज तक के आगे भी वस्त्रविहीन नहीं करती.

और खतरा सबसे ज्यादा वहीं था कि कहीं मैं अपना आपा ना खो बैठूं. वसुन्धरा ‘न’ नहीं कहेगी, ऐसा मुझे पता था लेकिन यही तो मेरे सब्र, मेरी शराफत, मेरे सदाचार की सबसे बड़ी परीक्षा थी जिसमें मैंने सफल हो कर दिखाना ही था.

मैंने अपने कांपते हाथों को स्थिर किया और जमीन पर पड़ा लहंगा हौले-हौले ऊपर उठाना शुरू किया, वसुन्धरा की जांघों के जोड़ के बीच में भी स्पंदन हो रहा था. पेंटी का कपड़े वाला हिस्सा मंथर गति से धड़क रहा था और योनि की दरार के आस-पास पेंटी का गुलाबी साटन कुछ-कुछ सील कर(नमी युक्त होकर) गहरे रंग का दिख रहा था.

नारी-योनि का यह स्पंदन, यह योनि-स्त्राव, नारी-शरीर के ये लक्षण, सब मेरे जाने-पहचाने थे.

स्थिति वाक़ई में बहुत विस्फोटक थी. मुझे बहुत ही सतर्क रहने की आवश्यकता थी. वसुन्धरा की काम-ज्वाला वाला पैमाना भी बस छलकने को ही था.
मेरी एक छोटी सी लापरवाही जैसे वसुन्धरा के उरोजों पर मेरी सिर्फ एक गर्म सांस या उसकी योनि के इर्द-गिर्द मेरी हथेली की एक हल्की सी रगड़ या उसके कूल्हों पर मेरी उँगलियों का उचटता सा स्पर्श वसुन्धरा को बेक़ाबू कर सकता था … और मैं ऐसा हरगिज़ हरगिज़ नहीं चाहता था.

मैंने पूर्ण सावधानी बरतते हुए लहंगा वसुन्धरा के कटिप्रदेश तक पंहुचाया. सबसे मुश्किल इम्तिहान की घड़ी निकल चुकी थी. जैसे ही मैं सीधा खड़ा हुआ तो मैंने पाया कि वसुन्धरा ने अपनी आँखें कस के बंद कर रखी हैं और उसकी साँसों की गति अस्त-व्यस्त है. उसके होंठों में रह-रह कर थिरकन सी हो रही थी और अपने होंठ को न थिरकने देने के लिए जूझती वसुन्धरा की ठुड्डी की सतह रह-रह कर गड्डे से बन-बिगड़ रहे थे.

“वसुन्धरा!” फिर नाम के साथ ‘जी’ गायब.
“हूँ…” दूर कहीं वादियों में से जैसे गूंज आयी हो.
“यहीं नाड़ा कस दूँ?” मैंने लहंगे को कूल्हे की बाहर को उभरी हड्डियों के ज़रा सा ऊपर टिका कर पूछा.
“जी!” वसुन्धरा तो बेखुद सी थी.

मैंने नाड़ा कसा और वहीं गाँठ लगा दी. वसुन्धरा की आँखें अभी भी बंद थी अलबत्ता होंठों में सिहरन थोड़ी कम हो गयी थी.
“ठीक हो गया … वसुन्धरा जी!”
” हूँ …! ” फिर वही बेपरवाही भरी बेखुदी.

मैंने थोड़ा परे हट कर वसुन्धरा को निहारा. सब ठीक ही लग रहा था.

लेकिन जैसे ही मैंने वसुन्धरा को पीछे घूम कर देखा तो पाया कि वसुन्धरा की चुनरी, वसुन्धरा की पीठ की ओर से लँहगे के अंदर फंसी हुई थी.
ओहो … भारी जड़ाऊ काम वाली चुनरी खींच कर या झटके से तो निकाली नहीं जा सकती थी.
मतलब ये कि लहँगे का नाड़ा दोबारा खोल कर, लहँगा ढीला कर के चुनरी बाहर निकालनी थी और नाड़ा दोबारा बाँधना था.

इसमें वसुन्धरा का वर्तमान मूड सरासर खतरे की घंटी था. एक बार तो वो जैसे-तैसे ज़ब्त कर गयी, दोबारा शायद न कर पाए. लेकिन और कोई चारा भी तो नहीं था. मैंने वसुन्धरा के सामने खड़े हो कर वसुन्धरा के लहंगे के नाड़े को जैसे ही खोला, वसुन्धरा ने फ़ौरन अपनी आँखें खोल ली और सवालिया निगाहों से मेरी ओर देखा.

“क्या वसुन्धरा जी! आप की चुनरी पीछे से लहंगे के अंदर फंसी थी और आपको पता ही नहीं … वही निकालनी है.”
वसुन्धरा बोली तो कुछ नहीं … अपितु उस के चेहरे पर हल्की सी मुस्कराहट आ गयी.

मैंने लहँगे का नाड़ा थोड़ा ढीला किया और अपने दाएं हाथ में नाड़े के दोनों छोर पकड़ कर अपना बायां हाथ बायीं ओर से वसुन्धरा के पीछे लेजा कर चुनरी को एक हल्का सा झटका दिया लेकिन चुनरी जस की तस! जरूर जड़ाऊ काम के सितारे-मोती, लहँगे के अंदर कहीं न कहीं फंस रहे थे.
लहंगा और ढीला हो नहीं सकता था और मैं घूम कर पीछे नहीं जा सकता था क्योंकि मैंने दाएं हाथ में लहंगे के नाड़े के दोनों सिरे थामे हुये थे.

हार कर मैंने अपना बायां हाथ वसुन्धरा के पीछे की ओर से लहँगे के अंदर डाल दिया. अब हालत यह थी कि एक तरह से वसुन्धरा मेरे आगोश … आंशिक ही सही लेकिन आगोश में थी. आश्चर्यजनक रूप से वसुन्धरा को इस में रत्ती भर भी ऐतराज़ नहीं था, उलटे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे वसुन्धरा इस परिस्थिति को एन्जॉय कर रही हो.

इस प्रक्रिया में मेरा तनाव में आया हुआ, फौलाद की तरह सख़्त और गर्म, धधकता हुआ लिंग वसुन्धरा की नाभि से ज़रा नीचे, वसुन्धरा से शरीर से सट गया. वसुन्धरा एकदम सिहर उठी. वसुन्धरा के नितंबों और मेरे हाथ के बीच में वसुन्धरा की लहंगे में फंसी चुनरी का आवरण मात्र था. मैंने अपने हाथ को लहँगे के अंदर ही बाहर (लहँगे) की तरफ उठा कर ऊपर से नीचे, दाएं से बाएं फिरा कर देखा, कहीं कोई अटकाव नहीं था लेकिन चुनरी तो अभी भी लहँगे के अंदर ही फंसी हुई थी.

मैंने चुनरी परे हटायी और हल्के से अपना हाथ आगे किया. तत्काल मेरे बाएं हाथ की हथेली वसुन्धरा के आवरण-विहीन जलते-तपते बाएं नितंब पर जा टिकीं, फ़ौरन ही वसुन्धरा के मुंह से एक तीख़ी सिसकारी निकली और उस के शरीर में सिहरन की दौड़ती लहर को मैंने स्पष्ट महसूस किया.

मैंने अपना हाथ थोड़ा और आगे दोनों नितंबों के बीच की दरार की ओर बढ़ाया और पाया कि वसुन्धरा की चुनरी दोनों नितम्बों के बीच में कहीं नीचे वसुन्धरा की पेंटी में अटकी हुई है. मैं धीरे धीरे अपना बायां हाथ नितम्बों की दरार के साथ साथ नीचे की ओर ले जाने लगा. वसुन्धरा के शरीर में रह रह कर सिहरन की लहरें उठ रही थी और उसने अपना निचला होंठ अपने दांतों में कस कर भींच रखा था.

जहां नितम्बों की गोलाई ख़त्म होती है, वहाँ जहां गुदा और योनि के बीच की जगह पर वसुन्धरा की पेंटी में वसुन्धरा की चुनरी का सितारा अटका हुआ था. मैंने दो तीन बार उसे दाएं-बाएं हिलाया लेकिन वो ढीठ वहीं का वहीं. इसी धक्का-मुक्की में मेरे हाथ की उंगलियों के पोरू वसुन्धरा की जलती-धधकती योनि से रगड़ खा गए.

ऐसा होना ही ग़ज़ब ढा गया … तत्काल वसुन्धरा ने दोनों बाज़ु उठा कर मेरे दोनों कांधों पर रख कर कोहनियों के जोर से मुझे अपनी ओर खींचा और अपनी ठुड्डी मेरे बाएं कंधे पर टिका दी. परिस्थिति हाथ से बस! … निकलने को ही थी. एक क्षण … मात्र एक पल और … और सब स्वाहा!
फिर न तो राजवीर बचता, न वसुन्धरा बचती और न ही बचती कोई सामाजिक वर्ज़ना.
बचते तो सिर्फ आदम और हव्वा के वंशज जो सामाजिक रिवायतों की परवाह किये बिना, युगों-युगों से एक-दूसरे में समा कर अपनी आदिमकाल की प्यास मिटाने की कोशिश में व्यस्त होते.
लैला-मजनूं, शीरीं-फ़रहाद, हीर-रांझा, सस्सी-पुन्नू, सोहनी-महिवाल … ये सब प्रेम-गाथायें असल में आदम और हव्वा की इसी अनबुझी प्यास को मिटाने की अनथक कोशिशों के स्मृति-पात्र हैं लेकिन ये प्यास न तो अभी तक मिटी है, न कभी मिटेगी. देस बदलेंगे … काल बदलेंगे, जिस्म बदलेंगे … नाम बदलेंगे लेकिन आदम और हव्वा की एक-दूसरे के लिए प्यास का ये खेल यूं ही अनवरत चलता रहेगा … शायद सृष्टि के अंत तक.

लेकिन सृष्टि का अंत फिलहाल तो नहीं आया था. तभी वसुन्धरा की पेंटी में अटका हुआ उस की चुनरी का सितारा, पेंटी के फैब्रिक से आज़ाद हो गया जिसका एहसास तत्काल वसुन्धरा को भी हो गया. यूं लगा कि वसुन्धरा इससे खुश नहीं हुई और वसुन्धरा ने इसका विरोध अपनी कमर, अपनी योनि को मुझसे अच्छी तरह सटा कर जताया.

मैंने अपने बायें हाथ के साथ-साथ उसकी चुनरी लहंगे से बाहर निकाल ली.

पाठकगण! मैं आपसे झूठ नहीं बोलूंगा … उस वक़्त चुनरी का वसुन्धरा की पेंटी की पकड़ से छूट जाना मुझे भी कहीं अंदर ही अंदर बुरा सा ही लगा था.
लेकिन शायद यही सही था.

मैंने लहँगे के नाड़े की वसुन्धरा की कमर पर मुनासिब जग़ह गाँठ लगाई और हम दोनों घर से शादी वाले होटल की ओर रवाना हुए.

घर से निकलते हुए वसुन्धरा ने दबी जुबान में पुराने कपड़ों वाला अटैची कार से निकल कर घर में ही छोड़ने की बात कही लेकिन मैं उसकी बात सुनी-अनसुनी कर गया. लिहाज़ा वसुन्धरा के पुराने पहने हुए कपड़ों वाला अटैची कार में हमारे साथ ही होटल की ओर चल निकला.

कार में वसुन्धरा ने मुझसे कोई बात नहीं की अपितु सारे रास्ते वसुन्धरा अधमुंदी आँखों के साथ मंद-मंद मुस्कुराती रही, शायद उन लम्हों को मन ही मन दोहरा रही थी. वसुन्धरा के रुख पर रह-रह कर शर्म की लाली साफ़-साफ़ झलक रही थी. वसुन्धरा की आँखें बार-बार झुकी जा रही थी, होठों पर हल्की सी मुस्कान आ गयी थी और माथे पर लिखा 111 कब का विदा ले चुका था, आवाज़ में से तल्ख़ी गायब हो चुकी थी और उस के हाव-भाव में आक्रमकता की बजाये एक शालीनता सी आ गयी थी.
इस आधे-पौने घंटे ने वसुन्धरा के व्यक्तित्व में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया था, एक स्त्री को स्त्री वाला अंतर्मन दे दिया था.

खैर! तूफ़ान का दौर गुज़र चुका था, वो भी बिना कोई ख़ास नुक्सान किये. लेकिन ये मेरे लिए एक गंभीर चेतावनी छोड़ गया था. बाहर से तल्ख़, ठंडी, कठोर वसुन्धरा के अंदर अनछुये एहसासों का, प्यार की प्यासी भावनाओं का एक धधकता हुआ ज्वालामुखी छुपा हुआ था. मैं खुद को काम-कौशल में सिद्धहस्त मानता था और अगर नियति ने चाहा तो, अगर ये लम्हें भविष्य में कभी मेरे और वसुन्धरा के बीच में होने वाले अविश्वसनीय प्रेम-द्वन्द की आधारशिला बने तो यक़ीनन मेरी बहुत ही कड़ी परीक्षा होने वाली थी.

कहानी जारी रहेगी.
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