फिर एक अहिल्या – 10

यह कहानी एक सीरीज़ का हिस्सा है:

फिर एक अहिल्या – 9

फिर एक अहिल्या – 11

मैंने महसूस किया कि मेरे ज्यादा नर्मी दिखाने की वजह से वसुन्धरा मुझ पर हावी होने की कोशिश कर रही थी. यह तो सरासर मेरे पौरूष को खुली चुनौती थी और ऐसा तो मैं होने नहीं दे सकता था.

मैंने तत्काल थोड़ा सा और कठोर होने का फैसला किया. अंगिया और ब्लाउज़ हटने के बाद वसुन्धरा की साड़ी, अस्त-व्यस्त ही सही … रंग में भंग डाल रही थी. मैंने पहले वसुन्धरा की साड़ी और साया निकालने का फ़ैसला किया. मैंने फ़ौरन खुद को वसुन्धरा की पकड़ से छुड़वाया और अपने बदन पर जॉकी को छोड़ कर बाकी के सारे कपड़ों को जल्दी से तिलांजलि दी और मुड़ कर वसुन्धरा का रुख किया.

वसुन्धरा बिस्तर पर लेटी-लेटी मुदित भाव से मेरी ओर ही निहार रही थी. जॉकी के अंदर मेरा लिंग रौद्र रूप में था. अचानक ही वसुन्धरा की नज़र मेरे जॉकी पर पड़ी और वहीं ठिठकी रह गयी. उसके चेहरे पर डर, ख़ौफ़, ख़ुशी, आश्चर्य के भाव आ जा रहे थे. वो अपने थरथराते होंठों को अपनी जीभ से रह-रह कर गीला कर रही थी.

बिस्तर पर बैठ कर मैंने वसुन्धरा के रसभरे होंठों को प्यार से चूमा और थोड़ा झुक कर अपना बायां हाथ वसुन्धरा की कमर के परली ओर जमाया और अपने दायें हाथ से वसुन्धरा के बाएं अमृतकलश की घुंडी मसलते- मसलते अपने जलते-प्यासे होंठ वसुन्धरा के गोरे-चिट्टे पेट पर रख दिए और जगह-जगह चूमता-चूसता हुआ वसुन्धरा की नाभि की ओर बढ़ा.

तत्काल ही वसुन्धरा के शरीर में थरथराहट होने लगी और उसके जिस्म की हरारत बढ़ने लगी और वसुन्धरा के दोनों हाथ मेरे सर पर आ जमे. जैसे ही मेरे होंठ वसुन्धरा की नाभि पर पहुंचे, तत्काल मैंने अपनी जीभ उसकी नाभि में डाल दी और नाभि के अंदर अपनी जीभ फिराने लगा.

मेरी इस हरकत ने वसुन्धरा के रहे-सहे होश भी उड़ा दिए- आह … हा..हा..आह! सी … सी … ओह … ओह … सी..ई..ई … ई … ई! रा … ज़! सी … ई … ई … ई! … बस..उफ़..फ़..फ़! प्लीज़ … मर जाऊंगी … आह … ह … ह … ह! … सी..सी..सी!

उधर वसुन्धरा के दोनों हाथों की उँगलियों के नाख़ून मेरे सर में गड़े जा रहे थे और इधर मेरा बायां हाथ वसुन्धरा के पेट का पूरा जुग़राफ़िया नाप रहा था. वसुन्धरा के पेट के बायीं ओर पेटीकोट के नाड़े की गांठ लगी हुयी थी. मैंने अपने बाएं हाथ से धीरे से नाड़े की गाँठ खोल दी जिसका वसुन्धरा को रत्ती-भर भी अहसास नहीं हुआ.

मैंने चुपके से अपने बाएं हाथ की चारों उंगलियाँ वसुन्धरा के ढीले इज़ारबंद में से पेटीकोट के अंदर सरका दी और धीरे-धीरे वसुन्धरा के पेट के परले सिरे की ओर खिसकानी शुरू कर दी. पेटीकोट के ढ़ाई-तीन इंच अंदर मेरी उँगलियों के सिरे वसुन्धरा की पैंटी के इलास्टिक को छू रहे थे.

मैंने अपना बायां हाथ थोड़ा सा और पेटीकोट के अंदर घुसाया, तत्काल मेरी उंगलियां जाली जैसी संरचना से टकराई. लगता था कि वसुन्धरा सिर्फ़ डिज़ाईनर अंडर गारमेंट्स पहनती थी.
“नईं … यहां नहीं … रा … ज़! प्लीज़ नहीं … न..न … न करो … नई … ईं … ईं … ईं … ईं … तुम्हें मेरी कसम … सी … ई … ई … ई! हा..आह.. सी..ओह..सी … ओह … हा … आह..सी … मर गयी मैं … ओह … सी … सी … सी … ईं … ईं … ई!

मैंने फ़ौरन सर उठा कर वसुन्धरा की आँखों में झाँका!
इतनी सर्दी में भी माथे पर पसीने की बूंदें, आँखों में एक इल्तज़ा, थरथराते होंठ, आने वाले पलों वाले पहले अभिसार की परिकल्पना में रह रह कर सिहरता शरीर, जिंदगी भर ओढ़े शर्मो-हया के परदे अपने प्यार पर एक-एक कर के कुर्बान होते देखना. जिंदगी में ऐसा तिलिस्मी अनुभव सिर्फ एक ही बार मिलता है.

यूं काम-क्रीड़ा तो अपने जीवन में स्त्री-पुरुष सैंकड़ों-हज़ारों बार करते हैं लेकिन पहली बार अपनी देह पर अपने महबूब के हाथों का जादुई स्पर्श वाला सुख फिर दोबारा नसीब नहीं होता. वसुन्धरा अपनी जिंदगी के बेहतरीन पलों में से गुज़र रही थी. और अभी तो सिर्फ शुरुआत थी. आज की रात वसुन्धरा जन्मों-जन्मों तक नहीं भूल सके, मैं सतत इसी प्रयास में था.

अचानक ही वसुन्धरा का एक हाथ मेरे सर पर से खिसकता-खिसकता, मेरी पीठ पर से होता हुआ मेरे जॉकी के अंदर जाकर मेरे दाएं कूल्हे पर फिरने लगा. चूंकि मेरी वसुन्धरा की ओर अर्धपीठ थी इसलिए मेरा काम-ध्वज अभी वसुन्धरा की पकड़ में नहीं था.

लेकिन यह मुकाबला बराबरी का नहीं था. वसुन्धरा के शरीर पर बहुत सारे कपड़े (साड़ी, पेटीकोट और पैंटी) थे और मेरे सिर्फ एक (जॉकी). मैंने अपना दायां हाथ वसुन्धरा के उरोज़ से उठाया और वसुन्धरा की कमर के परले सिरे से ढीले इज़ारबंद में से पेटीकोट के अंदर सरका दिया और अपना बायां हाथ वसुन्धरा की कमर के अपने पास वाले सिरे से ढीले इज़ारबंद में से पेटीकोट के अंदर डाल कर साड़ी और पेटीकोट इक्कठे एक ही झटके में वसुन्धरा के घुटनों के नीचे तक उतार दिये.

बाहर झमझमाती बारिश के शोर और कमरे में शमा की पीली झिलमिलाती रोशनी में मुझे वसुन्धरा की गोरी, पुष्ट जाँघों के ऊपरी सिरे पर छोटी सी डिज़ाईनर किसी हल्के रंग की पैंटी (गुलाबी या पीली) में बंद नारी के अन्तरंग और गुप्त अंग की झलक मिली.
डिज़ाईनर पेंटी की जाली में से कुछ कुछ रेशमी बालों की झलक सी भी मिली जैसे वैक्स करवाए 15-20 दिन हो गए हों.

वसुन्धरा ने शरमा कर तत्काल अपनी बायीं टांग घुटने से मोड़ कर दायीं टांग पर रख ली और वो स्वर्गिक नज़ारा मेरी आँखों से ओझल हो गया लेकिन वसुन्धरा की इस हरकत का मुझे लाभ यह मिला कि वसुन्धरा की बायीं टांग खुद ही साड़ी और पेटीकोट की गिरफ्त से आज़ाद हो गयी.
मैंने आगे बढ़ कर वसुन्धरा की दायीं टांग को साड़ी और पेटीकोट में से निकाल बाहर किया.

अब हम दोनों सिर्फ एक-एक कपड़े में थे. मैं जॉकी में और वसुन्धरा पैंटी में. मैंने बिस्तर पर से उठ कर तनाव के कारण कड़कड़ाते हुए अपने लिंग को अपने अंडरवियर के अंदर हाथ डाल कर अंदर ही अंदर अपने पेट के साथ-साथ ऊपर नाभि की तरफ सेट किया.
वसुन्धरा मुझे बहुत गौर से ऐसा करते हुए देख रही थी.
मैंने आंख भर कर वसुन्धरा की ओर देखा. जैसे ही मेरी नज़र वसुन्धरा की नज़र से टकराई तो मारे शर्म के, वसुन्धरा ने फ़ौरन अपने दोनों हाथ अपनी आँखों पर रख कर करवट ले कर मेरी ओर पीठ कर ली.

सच कह रहा हूँ पाठकगण! तन्हाई में, सेज़ पर, कभी आँख मिलाती … कभी चुराती, आने वाले पलों में होने वाले अभिसार की प्रत्याशा से रह-रह कर थरथराती, कभी अपने यौवन को दिखाते-दिखाते छुपाती या छुपाते-छुपाते दिखाती, शर्म से लाल हुयी जा रही जवान अर्ध-नग्न अभिसारिका के ज्यादा सम्मोहक़ इस संसार में कोई और चीज़ है ही नहीं. इस संसार की तमाम उपलब्धियां, संसार के सारे धर्मों के सारे स्वर्ग, सारे मोक्ष, सब समाधियां, सब योग, सब पुण्य ऐसे एक पल के सम्मोहन के आगे हेय हैं.
यह वो पल होता है जिसकी जद में आये हुए लोग और उनकी आइंदा तमाम नस्लें भी सदियों तक इस पल के फ़ैसले के पाबन्द रहते हैं. इसी पल के उरूज़ के कारण आदम और हव्वा खुदा के बाग़ से निकाले गए और आज उनकी नस्लों को भी इस पल के फैसले पर ऐतराज़ नहीं … ऐसा है इस पल का सम्मोहन.

और आज हम दोनों इसी पल की ग़िरफ़्त में थे.

मैं बैड के पास पहुंचा और वसुन्धरा के पीछे बैठ कर आहिस्ता से पैरों में पड़ी जयपुरी रजाई वसुन्धरा के ऊपर ओढ़ा कर खुद भी वसुन्धरा की पीठ की तरफ से रज़ाई में घुस गया और वसुन्धरा की पीठ की तरफ से अपना निचला (दायाँ) हाथ वसुन्धरा की गर्दन के नीचे से परली तरफ निकाल के ऊपर की ओर घुमा कर उसे वसुन्धरा के ऊपर वाली (बाएं) छाती पर रखा और अपना बायां हाथ वसुन्धरा के ऊपर से परली तरफ ले जा अपनी हथेली वसुन्धरा के निचले (दायें) उरोज़ पर जमा कर उसे अपने आलिंगन में कस लिया. वसुन्धरा के दोनों उरोजों के एकदम तने हुए और सख़्त निप्पल मेरे दोनों हाथों की हथेलियों के ऐन बीचों-बीच थे.

“वसुन्धरा”
“हुँ …”
“जानती हो … मेरे दोनों हाथों में क्या हैं?” मैंने शरारत भरे लहज़े में पूछा.
“मुझे नहीं पता!” वसुन्धरा मेरे लहज़े में शरारत को भांप गयी थी.
“मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं.”

तत्काल सारा कमरा वसुन्धरा की खनकती हंसी से गूँज उठा. उसने अपने दोनों हाथ उठा कर अपने दोनों उरोज़ थामे मेरे हाथों को ऊपर से जकड़ लिया. मैंने अपने होंठों से वसुन्धरा के बायें कान के ज़रा सा नीचे एक चुम्बन लिया. तत्काल वसुन्धरा के मुंह से एक तीखी सिसकारी निकल गयी और वो लगी अपने जिस्म को आगे-पीछे झुलाने, जिसके कारण वसुन्धरा के जिस्म के साथ-साथ मेरे जिस्म में एक जुम्बिश सी पैदा हुई और दोनों जिस्म आपस में रगड़ खाने लगे.

उफ़! वसुन्धरा के नंगे, गर्म जवान जिस्म को पीछे से रगड़ कर मेरा नंगा जिस्म मानो आग पैदा करने की कोशिश में था. मेरा गर्म फ़ौलाद जैसा लिंग वसुन्धरा की पैंटी के ऊपर से ही उसके नितम्बों की ऐन दरार पर रगड़ खा रहा था, मेरी बायीं टांग वसुन्धरा की बायीं टांग पर चढ़ी हुयी थी और हम दोनों की दोनों दायीं टांगें लंबवत बिस्तर पर सीधे फ़ैली हुई थी. मेरी दोनों हथेलियों के नीचे वसुन्धरा के दोनों उरोजों और उनके निप्पल्स रगड़ खा रहे थे.

क्या गज़ब का तारतम्य था दोनों जिस्मों की गति में. कमरे में सर्वत्र काम-गंध फैली थी और रति-कामदेव की लीला अपने चरम पर पहुँचने को अग्रसर थी. वसुन्धरा के जिस्म का रेशा-रेशा फड़क रहा था और उसके मुंह से गर्म-उबलती आहों-कराहों का प्रवाह सतत जारी था- ओ … ओह … ओ गॉड … हा … आह … उह … ऊ … ऊ … स … हु … सी … इ … ई … ई … सी … मर गयी … ओह … सी … ई … ई … ई!
वसुन्धरा के जिस्म में रह-रह कर सिहरन उठ रही थी.

अचानक ही वसुन्धरा ने मेरे दाएं हाथ को अपने बाएं उरोज़ पर से उठाया और मेरे दाएं हाथ को अपने हाथ में पकड़ कर जगह-जग़ह से चूमने लगी और मेरी तर्जनी और मध्यमा उंगली अपने मुंह में लेकर बेसब्री से चूसने लगी. मैंने अपना बायां हाथ उठा कर वसुन्धरा के बायें कंधे से नीचे लंबवत उतारना शुरू कर दिया. कमर के ख़म के और नीचे हाथ ले जाने की बजाए मैंने पैंटी के इलास्टिक के साथ-साथ पेट के सेंटर की ओर हाथ बढ़ाया.

वसुन्धरा ने अपनी बायीं टांग मोड़ कर मुझे अपनी योनि छूने से रोकने की कोशिश की तो सही लेकिन चूँकि मेरी बायीं टांग, वसुन्धरा की बायीं टांग के ऊपर थी इसलिए इस बार वसुन्धरा अपनी कोशिश में कामयाब नहीं हो पायी और ऐन नाभि के नीचे पहुँचते ही अपना हाथ पैंटी के इलास्टिक के अंदर से नीचे की ओर बढ़ा दिया.
उफ़! मेरा हाथ जैसे किसी तपती-धधकती भट्टी की ओर बढ़ रहा था. तभी मेरे हाथ को नर्म नर्म रेशमी रोमों का एहसास हुआ. मैंने अपना हाथ पैंटी के अंदर ही थोड़ा ऊपर उठाया और हथेली का एक कप सा बना कर, जिस में मेरी चारों उंगलियां नीचे की ओर थी वसुन्धरा की तपती जलती योनि पर रख दिया.

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